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Wednesday, July 23, 2014

डेड-एंड !

हज़ारों सिग्नल को पार करते हुए
कई चौराहों से निकलते हुए
कभी कभी लगता है कि
ज़िन्दगी जैसे एक
'डेड-एंड' पर आ पहुंची हो
अब इसे किसी की दरकार नहीं
ज़िन्दगी जैसे अब
अकेले सड़क पार करना चाहती हो


रेड होते सिग्नल से न जाने
कितनी बार ख़ुद को बचाया है इसने
कई दफ़े स्पीड की वजह से
रेड सिग्नल को तोड़ा भी है इसने
डिवाइडर ने एहसास दिलाया
कि इसे बंट कर चलना है सबसे
रास्ते में ख़तरनाक मोड़ भी आये
जहां फिसलन - अँधेरा सारे जुटे थे
फिर गिरने का तजुर्बा हुआ
कुचले जाने का डर हुआ
चलते रहने का जूनून हुआ
संभलने का सुकून हुआ

डेड-एंड से ख़ुद को
बचा लेगी इस बार भी ज़िन्दगी
इक नए सफ़र पर
ख़ुद को भरोसा दिलाएगी ज़िन्दगी
वो देखो,
ज़िन्दगी इस दफ़े.. अकेले सड़क पार कर रही है ।


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Tuesday, July 15, 2014

ख़त में लिपटी रात... (२)

सुनो,

कुछ ना कहूं क्या तुमसे ? हर बार मेरी बात क्वेश्चन मार्क से ही क्यूँ शुरू होती है, तुम इसके लिए मुझसे नाराज़ हो सकते हो.. सवाल कर सकते हो । पर मेरी एक ही उम्मीद लगी है तुमसे कि तुम्हारा कुछ कहा, मैं सुनूं । अब इतनी भी उम्मीद लगाने की मेरी हैसियत नहीं, ये ना कह देना । सिर्फ़ इतना तो तुमसे चाह ही सकती हूँ । और किसी बात की उम्मीद मैंने छोड़ दी है । उस वक़्त से, जब ये एहसास हुआ कि मेरे और तुम्हारे बीच बहुत डिफरेंस है । सोच की नहीं, क्लास की । लोअर मिडिल क्लास और अपर क्लास की । गर हम दोनों मिल भी जाते तो पूरी ज़िन्दगी इस खाई को भरने में ही लग जाती शायद । मुझे मालूम है इस बात से तुम इत्तेफ़ाक़ नहीं रखोगे, क्यूंकि तुम्हारी सोच.. तुम्हारे ख़यालात बिलकुल मेरी तरह है। ज़मीं की मिट्टी की तरह । पर तुम्हारे आसपास बहुत चमक है, जिसके लिए शायद मैं.. 'परफेक्ट' नहीं । अब इन सबके बीच अगर मैंने तुमसे कुछ लफ़्ज़ों का नज़राना मांग लिया तो क्या गुनाह कर दिया ! मैं तुम्हें अपने बेहद क़रीब रखना चाहती हूँ । हाँ, तुमने बताया हुआ है कि तुम बंधे हुए आदमी नहीं हो.. पर मैं तुम्हें बांध कर नहीं रखना चाहती । बस, तुम्हारे किसी और से बंध जाने का डर है मुझे.. जो मुझे हर बार कमज़ोर बना देता है । मैं नहीं चाहती तुम्हारे सामने आना, पर तुम्हें एक झलक देखना मेरी ख़ुराक है । मैं तो बस तुम्हें महसूस करना चाहती हूँ.. तुम्हारे लफ़्ज़ों को सुनना चाहती हूँ.. जी भर के । यकीनन इतने भर से तुम्हें कोई ऐतराज़ नहीं होगा.. पर फिर भी एक बार अपनी ख़ामोशी तोड़कर, मेरे हाथों को अपना लम्स देकर.. कुछ कह जाओ.. कोई तो तोहफ़ा दे जाओ ।

मैं तुम्हारी कुछ भी नहीं.. मुझे एहसास है इस बात का । हर बार ख़त के आख़िर में अपना नाम लिख कर, मैं तुम्हें परेशान नहीं करना चाहती ।
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ख़ामोशी में तैरती इक रात..
तुम्हारे लफ़्ज़ों के इंतज़ार में
रफ़्ता-रफ़्ता गुज़र रही है ।

क्यूँ नहीं तोड़ देते तुम अपनी ख़ामोशी को
टुकड़ों-टुकड़ों में.. लफ़्ज़ों-लफ़्ज़ों में..
क्यूँ नहीं बिखर जाते तुम रेत की तरह
सांसों-साँसों में.. हाथों-हाथों में..

कब तक यूँ ही संगमरमर बने रहोगे
कब तक ख़ामोशी का इम्तिहान लेते रहोगे
इसे इत्मीनान नहीं..
अब मेरी ख़ामोशी डूब रही है

ख़ामोशी में तैरती इक रात..
तुम्हारे लफ़्ज़ों के इंतज़ार में
रफ़्ता-रफ़्ता गुज़र रही है ।

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Tuesday, July 8, 2014

अनजाने लोग

वर्कशॉप में वो मेरे पीछे वाली सीट पर बैठी थी । सुन्दर साड़ी, साड़ी का पल्ला चुन्नटों वाला नहीं था..एक पल्ला था (फ्री फॉल), मैचिंग चूड़ियां और बात करने का तरीका बिलकुल ठेठ । आरती प्रियदर्शिनी ।

इतनी साधारण, फिर भी इतनी आकर्षक । बाकियों का नहीं पता, पर मुझे नामालूम क्यूँ बार-बार इनसे बात करने का मन कर रहा था । पहले दिन तो आगे चुपचाप बैठकर, लंच टाइम में होने वाली इनकी बातचीत को मैं सुन रही थी । वर्कशॉप में सब एक-दूसरे से अजनबी थे, पहली बार मिल रहे थे.. इसलिए वो अपने आसपास बैठी बाकी महिलाओं से बातें करने लगी ।

"हम गोरखपुर से आये हैं।"
"गोरखपुर से दिल्ली सिर्फ इसी वर्कशॉप के लिए?"
"हाँ, और हम पहली बार दिल्ली आये हैं। बहुत मन करता है लिखने-पढ़ने का। गृहस्थी के काम से जब भी टाइम मिलता है, मतलब सब काम कर लिए ना, उसके बाद जो भी समय बचता है..उसमें लिखते है । पत्रिका तो हम खूब पढ़ते हैं..हिंदी पत्रिका । गृहशोभा में कुछ कहानियां भी छप चुकी है ।"
बाकी की महिलाएं गोरखपुर के बारे में पूछने लगी। उन्होंने मान्यता के अनुसार बताया, फिर कहने लगी, "हमारा मायका मुज़फ्फरपुर है । (ये सुनकर बातचीत में मेरा इंटरेस्ट जाग गया,चूँकि मैं पड़ोसी जिला की हूँ..शायद इसलिए) ये नाम भी मेरे दादाजी का ही दिया हुआ है । उनको इंदिरा जी बहुत पसंद थीं, इसलिए वो चाहते थे कि उनकी पोती भी कुछ करे..इसलिए उन्होंने मेरे नाम के आगे प्रियदर्शिनी लगा दिया है । (हँसते हुए आगे कहा) अब उतना कहाँ हो पाता है.. वहाँ तक पहुंचना मुस्किल है। इसलिए कहानी -लेख लिखकर अपना मन का कुछ करते रहते है ।"

उस दिन का सेशन ख़तम होने वाला था..मुझे जल्दी निकलकर एक हिस्टोरिक सेशन के लिए दूसरी जगह जाना था । इसलिए आरती प्रियदर्शिनी से मुलाक़ात अधूरी रह गयी ।

अगले दिन मैं लेट पहुंची.. पर आरती जी वहीं पीछे वाली रो में ही बैठी थी। आगे वाली सीट ख़ाली थी, इसलिए मैं दुबारा से उनकी बात सुनने के लिए वहीँ बैठ गयी । आज भी साड़ी वैसी ही पहनी हुई, गुलाबी रंग की । और चूड़ियां बदली हुई, साड़ी की मैचिंग । लंच-टाइम हुआ तो मैंने पीछे मुड़कर बात शुरू कर ही दी।

"हर साड़ी की मैचिंग चूड़ियां लेकर आई हैं आप?"
एक बड़ी सी मुस्कराहट के साथ उन्होंने कहा, "हाँ, हमको चूड़ी का बहुत शौक़ है । जहां भी जाते है, सब साड़ी का मैचिंग ले जाते हैं ।"
"तब तो चूड़ी का एक अलग बैग होता होगा!"
"हाहा, हाँ । मेरे पति को बहुत पसंद है.. इसलिए परेसानी नहीं होती ।"
शायद वो मेरी बात समझ गयी थी, कि पुरुष ज़्यादा लगेज बनाने पर और ढोने पर झल्ला जाते हैं ।
मैंने आगे कहा, "पहली बार दिल्ली आई हैं.. घूमी दिल्ली?"
"हाँ, कल यहाँ से निकलने के बाद लाल क़िला गए थे । पति- बच्चे इतनी देर के लिए कहीं आसपास चले जाते है। फिर शाम को हमको लेने आ जाते हैं । "
मैं पूछती रही वो बताती रही, उन्होंने ये भी नहीं पूछा कि मैं क्यूँ पूछ रही हूँ !!
"वैसे तो हम हर साल घूमने जाते हैं..हर साल घूमते है हम.. जब अपने तरफ सीतलहर चलता हैं ना तब हम पूरा साउथ इंडिया घूमते है ।"
निश्चित ही मुझे इससे लग गया था कि आरती जी के पति उन्हें बेहद प्रेम करते है.. तभी तो शीतलहर में कड़कड़ाती ठण्ड से बचाने के लिए, दस दिनों के लिए ही सही आराम की छुट्टी दे देते है ।

सेशन के दौरान उन्होंने सवाल भी पूछा तो इतनी आसानी से .. अपनी बोली में.. बिना हिचकिचाहट। अपने बगल में बैठी एक महिला, जिनके हाथ सूने थे.. आरती जी ने ना जाने क्या सोचते हुए एक कंगन अपनी बैग से निकालकर उन्हें दे दिया । कहा, पहनिए, हम आपके लिए ही लाये हैं ।

मुझे आरती प्रियदर्शिनी बहुत अच्छी लग रही थी । पीछे बैठे वो बोली जा रही थी और मैं कुर्सी पर पीठ टिकाकर, सिर को थोड़ा पीछे झुकाकर उनकी बात सुनकर मुस्कुरा रही थी । कई बार मंच पर बोल रहे वक्ता की बात से ज्यादा मुझे आरती जी की बात में रूचि हो रही थी ।  (और मुझे बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं था कि इसका नतीजा इस ब्लॉगपोस्ट के रूप में आएगा ।)

Tuesday, July 1, 2014

ख़त में लिपटी रात...

(यह एक फिक्शनल ख़त है।)


सुनो,
         हाँ! मैं कब से तुम्हें ऐसे ही पुकारना चाहती थी और तुम भी मुझे ऐसे ही पुकारो, यही चाहती थी । ये ख़त इसलिए क्यूंकि ख़त लिखने का मौसम फ़िर से लौट आया है । सुना है, सबसे ज़्यादा प्रेम लिफ़ाफ़े में बंद इन्हीं लिखे शब्दों में झलकता है ।

मैं क्यूँ नहीं रह सकती तुम्हारे साथ ? मैं क्यूँ दूर जाऊं तुमसे या तुम मुझसे क्यूँ दूर जाना चाहते हो ? मुझे तो तुम्हारे साथ अपना हर वक़्त बिताना था.. सब बातें कहनी थी । तुम्हारी कुछ भी ना कहने की आदत सीखनी थी । मुझे तुम्हारे जैसा होना था ।

मैंने क्या चाहा था तुमसे, ये मुझे ख़ुद नहीं पता ! बस इतना कि मुझे तुमसे टोकरी भर बातें करनी थी और तुम्हारी कुछ बातें सुननी थी । तुम्हारे साथ सुबह की चाय, दोपहर का अलसाना, शाम की फ़ुर्सत, रात का महकना... ये सब गुज़ार सकूं, बस यही चाहा था । एक और चीज़ चाही थी, जो मुझे बेहद पसंद है.. कि तुम मुझे इअरिंग्स लाकर दो.. झुमके, बालियाँ..कुछ भी  या फ़िर चूड़ियाँ.. रंग-बिरंगी ।

जिस समन्दर के किनारे मैं कब से जाना चाहती हूँ.. वहाँ मैंने तुम्हारे साथ जाने का सपना देखा था । वहीँ किनारे किसी बेंच पर तुम्हारे साथ बैठ सकूं,तुम्हारे गाल नोंच सकूं, तुम्हें कस के गले लगा सकूं, रेत पर तुम्हारे पैरों पर अपने पाँव रखकर चल सकूं, लड़खड़ा सकूं, और तुम संभाल सको... बस यही चाहा था । पर मेरा ये सपना गीली रेत से बनाये उस घर जैसा था, जिसे समंदर अपनी लहरों के साथ बहा ले गया ।

ये सच है, मैं जो कुछ लिखती हूँ वो तुम्हें सोचकर लिखती हूँ । जो अनकही है, उन्हें लिखती हूँ । पर एक बात जो तुम्हें नहीं मालूम कि मैं तुम्हारा लिखा सिर्फ़ अपने लिए पाती हूँ । सिर्फ़ अपने लिए समझती हूँ.. इसमें कोई और रुख़, मुझसे बर्दाश्त नहीं होता । तुम्हारे लिखे में हर बार मैं अपना नाम ढूंढती हूँ । ख़ुद से जोड़ लेती हूँ। तुम्हारी नज़र में यही मेरी गलतियां हैं.. पर मेरे लिए ये एक ज़रिया है, तुम्हें अपने क़रीब पाने का.. बेहद करीब..बेहद बेहद करीब ।

तुम्हारा लिखा पढ़ते वक़्त कई बार आँखें भर गयी है मेरी..कई बार मुस्कुराई हूँ मैं.. जैसे एक-एक शब्द मेरे कानों में सुना रहे हो तुम । आते-जाते.. सड़क पर या फिर मेट्रो में सफ़र करते हुए, जब भी तुम्हारा कुछ पढ़ा, मेरी भावनाएं मेरे बस में ना रही । ये सच है ये ख़्वाबों की दुनिया है.. पर ख़्वाब तुमने नहीं देखे क्या कभी ?

मुझे मालूम है हम दोनों नहीं मिल सकते । क्यूँ नहीं मिल सकते, इसकी समझ मुझ में नहीं । ये सब तो मेरा कहा है, मेरे दिल की बात है.. पर तुम्हारे दिल में क्या है, ये तुमने कभी बताया ही नहीं.. या बताना चाहा ही नहीं.. या फिर तुम्हारे दिल में मेरे लिए कुछ रहा ही ना हो ! बस यही एक तकलीफ़ है । पहले एक बार कहा था ना तुमसे कि जब मिलोगे, और मैं गले लगने आऊं तो मुझे झटकना मत.. तुमने वही कर दिया है.. झटक दिया मुझे । देखा नहीं, मैं कितना चहकती हुई सिर्फ़ तुम्हारे क़दमों की आहट सुन के दौड़ती-भागती चली आई.. बस मुझे आता देख तुमने अपना मुंह फेर लिया ।

मैंने कई बार खुद को तुम्हारे पास पाया है .. नहीं.. नहीं ! तुम्हें अपने पास महसूस किया । ख़ुद को कैसे भेज दूं तुम्हारे पास?.. उसकी इजाज़त तुमने कहाँ दी है ! पर क्या तुमने मुझे अपने आसपास कभी महसूस नहीं किया !!! मुझे ये भी कभी समझ नहीं आया कि यूँ ही बैठे-बैठे.. या कोई दूसरा काम करते हुए मेरे दिल से तुम्हारा नाम कैसे निकल जाता है ! हंसी आएगी तुम्हें..पर कई बार होंठों से भी अकेले में तुम्हारा नाम पुकार देती हूँ । मुझे नहीं मालूम, मेरा दिल इतना पावरफुल कैसे हो गया ! शरीर के सारे अंगों में सबसे ज़्यादा मज़बूत । और अब तुम्हें ये छोड़ नहीं पा रहा.. दूर नहीं कर पा रहा.. हर बार एकाधा बातें कहने की फ़िराक़ में रहता है । तुमसे अलग होना इसके लिए कमज़ोरी की बात है ।

पिछला सावन भी हरा नहीं था.. सादा ही गुज़रा । इस सावन से फ़िर से ढ़ेर सारी उम्मीद लगाए बैठी हूँ.. शायद बूंदे मेरे लिए कोई पैग़ाम लेकर आये । जिसे पाकर मैं हँसते हुए रो सकूं या रोते-रोते हंस सकूं ! जैसे अभी कुछ बूंदे डायरी के पन्नों पर आ गिरी है.. ये सावन मेरे लिए इस बार शायद और हरा हो जाए ! और कुछ नहीं, तो एक ख़त ही मेरे नाम से भेज देना जिसे मैं तुम्हारी आवाज़ में पढ़ सकूं ।

ये तोहमतें नहीं है.. ना ही शिकायतें हैं.. इसे भी मेरे प्यार का एक अंदाज़ ही समझना । तुम जैसे रहना चाहते हो, वैसे ही रहो । मुझसे दूर । पर तुम मेरे क़रीब हमेशा रहोगे.. क़रीब नहीं, तुम तो मेरे अन्दर रहते हो । तुमसे जुदा होना मुश्किल है.. लेकिन तुम्हारे साथ रहना सांस लेने जैसा है । बेहतर है सांस लेती रहूँ.. धीमे-धीमे तुम्हें महसूस करती रहूँ । तुम्हारी ख़ामोशी को पढ़ती रहूँ और समझने की कोशिश करती रहूँ ।

नहीं नहीं करते-करते देखो मैं कितना बोल गयी.. आजकल मौसम ही ऐसा है.. सच ज़ुबान पर आ ही जाता है । सुनो, अब ज़्यादा नहीं लिख सकती। ख़त हैं ना, क्या पता उड़ते-उड़ते किसी के हाथ लग जाए.. कोई और पढ़ ले !



तुम्हारी,
मुझे तो ये भी नहीं पता मैं तुम्हारी क्या हूँ !! इतना पता है कि बस तुम्हारी हूँ, चाहे तुम मुझे अपना समझो..ना समझो ! इसलिए इस बार इसे ख़ाली ही रहने देती हूँ ।

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