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Sunday, August 10, 2014

रक्षाबंधन

जीवन में बड़े भाई का होना बहुत ज़रूरी होता है । ठीक वैसे ही जैसे छोटा भाई, बहन की हर गलती में, हर शैतानी में उसका साथ देता है.. वैसे ही बड़े भाई लाइफ की हर छोटी-बड़ी प्रॉब्लम को समझने का, उन्हें सुलझाने का नज़रिया देते हैं । मुझे तो शुरुआत में भैया के साथ रहने का ज़्यादा मौका नहीं मिला.. पर पिछले कुछ सालों से, जब से दिल्ली में हूँ.. हम दोनों को एक-दूसरे के साथ ज़िन्दगी समझने का मौका मिला । हालांकि इस दौरान पिछ्ले कई साल साथ नहीं बिताने और हम दोनों के बीच छ: साल के अंतर की वजह से मुश्किलें आती रही । समझदारी का अनुपात बहुत गड़बड़ा देने वाला हो जाता है ना ! :)  ख़ैर, अब वो अंतर काफी हद तक मिट चुका है और मैं भी औसतन काफी समझदार हो गयी हूँ ।
इसके अलावा, भैया की वजह से भाभी आयीं और मुझे ननद बनने का सौभाग्य मिला। साथ ही भाभी पर रौब झाड़ने का भी  ;)

इन्हीं बातों के साथ, इस बार भी भैया को रक्षाबंधन की बहुत बहुत शुभकामनाएं और साथ में, यह ब्लॉगपोस्ट जो पिछले साल लिखी थी । - http://aanchalkiaashayein.blogspot.in/2013/08/blog-post_20.html

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इन सबके बीच इस राखी, घर पर रह रहे अपने छोटे भाई की भी बहुत याद आई । जब पिछले साल घर गयी थी, तब गोलू बहुत बड़ा और बहुत समझदार लग रहा था । एक बार को यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि ये छोटी माँ का वही छोटा सा बेटा है जिसने मेरे सामने जन्म लिया था । वही छोटे-छोटे हाथ.. छोटे-छोटे पैर वाला - कन्धा नापते नापते अब मुझ से भी लंबा हो गया है । अब पढ़ाई, करियर, राजनीति, इत्यादि इत्यादि को लेकर उसके ढ़ेरों सवाल होते हैं ।

ये छोटे भाई इतने बड़े और केयरिंग कैसे हो जाते हैं !! कपड़ों से निकली ब्रा-स्ट्रैप को देखकर वो नज़रें झुकाकर, धीरे से कहते हैं, 'दीदी, कपड़ा सही कर लीजिये' । या फिर बाज़ार में सबकी नज़रों पर गहरी निगरानी रखते हैं .. साथ चलने पर हमें बायीं ओर और ख़ुद हमारे दायीं होकर चलने लगते हैं.. मार्केट से कुछ लाने की बात पर कहते हैं- आप कहाँ जाईयेगा.. हम ला देते है । या हम भी साथ चलते है । इन छोटे भाइयों का इतना केयरिंग हो जाना बहुत प्यारा लगता है और शायद यही सब हम लड़कियों को अपने मायके को छोड़ते वक़्त रुलाता है ।

 

Monday, August 4, 2014

एक सावन ऐसा भी

हर साल सावन शुरू होते ही दादी की सबसे प्रिय पोती नहीं होने के बावजूद भी मुझे उनकी याद आ जाती है । इधर ये महीना शुरू हुआ नहीं कि दादी का शोर शुरू हो जाता था ।  घर की बहुओं के लिए हरी चूड़ियां/लहठी मंगवाने के लिए तो कभी रोज़ मंदिर जाकर शिव जी पर जल चढाने के लिए । रोज़ मंदिर जाने की चिढ़ से 'भक' बोलकर  बच भी जाते थे, लेकिन ये चूड़ियां लाने का काम तो मैं बड़े शौक से करती थी । दुकान से सामान घर लाकर सबको पसंद करवाना और फिर वापस जाकर पैसे देना- इस क्रम में या इस काम के बदले में दो-चार चूड़ियां मुझे भी पहनने को मिल जाती थी । यही कारण है कि आज भी सावन शुरू होते ही दादी की आवाज़ कानों में गूंजने लगती है, "रे जाही न रे ! माई आ छोटी माई लागी चूड़ी लावहि ना" । अब घर फ़ोन कर के सबसे पहले माँ को याद दिलाती हूँ, "माँ, हरा लहठी पहनी कि नहीं?"
इसके अलावा हर सोमवार को बेलपत्र पर राम-राम लिखवाने का काम भी होता था । नागपंचमी के दिन पूरे घर के पक्के वाले हिस्से को धोना और कच्चे वाले हिस्से को मिट्टी-गोबर से लीपना । हालांकि ये सब काम करवाए जाते थे । लेकिन पूरा सावन ऐसे बीतता जैसे तीसों दिन ही कोई त्योहार हो । नागपंचमी के बाद, सावन के बचे दिनों में से किसी एक दिन कुलदेवता की पूजा होती है और पूजा तक कुछ भी तला हुआ बनाने की मनाही । पूजा के दिन दालपुड़ी, खीर इत्यादि इत्यादि बनते । लकड़ी के चूल्हे पर । माँ-चाचियाँ दिनभर पूजा की तैयारियों में लगी रहतीं और हम बच्चे रंगीन कागज़ को तिकोने शेप में काटकर झंडियां बनाकर, लेई बनाते और फिर रस्सियों पर लगा लगाकर पूरे घर को सजाते, अशोक के पत्ते को भी इसी तरह रस्सियों में सजाते ।
बहरहाल, सावन में अब कुछ ही दिन बचे है.. कुलदेवता की पूजा इसी हफ़्ते घर पर होगी.. नागपंचमी तो बीत ही चुका है । लेकिन दादी फिर अगले सावन ऐसे ही यादों में आ जायेगी। सावन क्या, बल्कि हर त्यौहार के दिन.. आश्विन-कार्तिक हर महीने । अफ़सोस इस बात का है कि दादी जब आसपास थी तब उनके ज़्यादा क़रीब नहीं हो पायी मैं.. (या उन्होंने करीब लाया नहीं) .. अब ऐसे ही हर तीज-त्योहारों पर दादी को अपने आसपास महसूस करती हूँ ।

(दादी से जुड़ी बहुत सारी बातें हैं.. समय-समय पर शेयर करने की कोशिश करुँगी)।