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Monday, March 2, 2015

आपका टाइमपास करना हमारे लिए घातक हो जाता है । माना कि हमने भी आपके इनबॉक्स में लगातार संदेश भेजे.. लेकिन हमारे इनबॉक्स में आपका संदेश आते रहना, हमें किसी ख़याली पुलाव पकाने के लिए मजबूर कर देता है । आपको पता होता है कि आप ये सब महज़ अपने समय को काटने के लिए कर रहे हैं (जो नज़रिया आप साफ़ नहीं करते).. लेकिन हमें बेवजह कोई बेवकूफ़ाना खेल खेलने की आदत नहीं होती तो इसलिए हम आपकी इस कला को समझ नहीं पाते । बेहतर हो आगे के लिए आप की जमात ये बात समझ लें (पूरे आदर के साथ कह रहे हैं) । वो क...्या कहते हैं, डिच करना.. ब्रेक अप होना.. इन शब्दों से दूर हैं हम.. पर इन सब वक़्त पर उठी भावनाओं से भी ज़्यादा ख़तरनाक भावनाएं हमारे अंदर उठती है, जब हमें ऐसी किसी परिस्थिति से गुज़रना पड़ता है । उसपर भी आपका सवालों से दूर भागना.. और हमसे अपने लिए दुआ मांगना, हमें हमारी औरत होने की गरिमा याद दिलाता है । औरत हैं तो, दुआ देने का ठेका हमने ही ले रखा है क्या! चाहे आपने हमारी भावनाओं का कबाड़ा ही क्यूँ ना किया हो । आप कहेंगे, हमने भी तो बातों में मज़ा लिया था । क्यों ना लेंगे, हमें अपना नज़रिया कुछ और लगा था.. आपका नज़रिया दूसरा था । वैसे भी हम औरतें बातों-बातों में यूँ ही 'किसी' से भी अपनी सारी बातें नहीं कह जाते.. इस बात की समझ आप को अच्छी तरह होनी चाहिए थी । इसके बाद भी ऊँगली हमारी अस्मिता पर ही उठेगी.. सवालात होंगे .. कहा जाएगा तुम्हारी ही गलती रही होगी । और फ़िर, आत्मग्लानि का मंथन । ख़ुद से सवाल- कहाँ चूक हो गयी.. हमें ही बात नहीं करनी चाहिए थी शायद.. जवाब नहीं देना था । मतलब दोनों ही परिस्थितियों में सवाल हम पर और हमारा सवाल ख़ुद पर..!

Saturday, February 21, 2015

इश्क़ में शहर होना

हमें रवीश कुमार के कार्यक्रम में शिरकत करना बहुत पसंद आता है । लेकिन जब वो भीड़ से घिरे होते हैं तब हम भी दूर ही खड़े रहकर रवीश कुमार और उनके फैंस की आशिक़ी देखते रहते हैं । अक्सर ही सेमिनारों में किनारे या पीछे वाली  सीट पर बैठकर उन्हें सुनना अच्छा लगता है.. (बीच में आप स्टॉकिंग भी कर लें तो किसी को कुछ ख़ास पता नहीं चलता) । ख़ैर, आज पुस्तक मेले के एंट्री गेट पर ही तीन-चार लड़कियों के हाथ में "इश्क़ में शहर होना" देखकर बेहद ख़ुशी हुई.. ऐसा लगा कि शहर भर में इश्क़ फैल चुका है । स्टॉल पर पहुंची तो किताब पर ऑटोग्राफ़ लेने वालों की लंबी लाइन । मैंने इस सुनहरे मौके का लाभ मेले के पहले-दूसरे दिन ही ले लिया था, इसलिए मैं एक बार फिर दूर ही खड़ी रही । रवीश कुमार कभी किताब पर साइन करते तो कभी ख़ुद ही माइक लेकर लोगों को बुलाने लगते । - " कौन स्टॉल नं है जी ये? अच्छा 2 3 7 . जी, नमस्कार मैं रवीश कुमार बोल रहा हूँ.. सबलोग हॉल नं 12 के स्टॉल नं 237 पर आ जाए.. अच्छा लगेगा आप सब से मिलकर ।" सहजता इतनी कि सेल्फी लेने वालों को डपट भी रहे हैं तो यह कहकर कि सेल्फ़ी एक राष्ट्रीय रोग है.. आओ दोस्त.. खिंचवा लो । मैंने सोचा आज मेरा मिलना शायद मुमकिन नहीं । इसलिए निकास गेट पर एक ओर खड़ी हो गयी । सर निकले तो उनकी एक जानने वाली को पांच मिनट चाहिए थे और मैंने कहा, "सर, मुझे भी दो मिनट।" "अच्छा, तो कुल मिलाकर 7 मिनट हो गए ।" पर सबके चहेते लप्रेककार सेल्फ़ी और फ़ोटो खिंचवाते खिंचवाते दुबारा स्टेज पर चले गए । हम भी हिले नहीं.. वहीं खड़े रहे । दुबारा बाहर आएं तो संपादक महोदय ने मुझे (बहुत प्यार से) सीधे मना कर दिया कि नहीं, तुम आज नहीं मिलोगी। लेकिन हमें तो मिलना ही था । बात कुछ ऐसी थी.. और भी बहुत कुछ थी। एक तोहफ़ा था, जो देना ज़रूरी था । बाकी तो ख़ास बातें हैं । पप्पाराज़ी कुछ ज़्यादा ही हो रही थी । रवीश कुमार को ही कहना पड़ा, "भई, हमें भी तो मेला घूमने दीजिये.. हमें भी किताबें खरीदनी है ।" जान बचाकर बचते बचाते निकले सर जी ।

प्रेम व्यक्तित्व से होता है । हमारा प्रेम इस शख़्स के व्यक्तित्व से है । हमने कभी इन्हें नज़दीक से जाना नहीं । पर दूर से समझने की कोशिश करते रहते हैं । इन्हें हम हर मंच पर बोलते देखना चाहते हैं.. न्यूज़रूम में सबको डपटते देखना चाहते हैं.. भीड़ को बुलाते भी.. भीड़ से बचते भी ।

(मेले की झलकियों पर बहुत कुछ लिखना है.. समय मिलते ही। वैसे कुछ बातें बेहद अपनी लगती हैं.. जिन्हें किसी के साथ बाँटने का मन नहीं करता। फिर भी ये निजी बात लिख दी है)

Wednesday, February 18, 2015

उस पार...

चलना इन सीढ़ियों के पार कभी
हवा के सुकून में बहना कभी


उस पार,
किले की दीवार का एक परदा होगा
ज़माने भर की बेताब निग़ाहों से छुपाता होगा
उस पार,
एक पूरा दिन अपना होगा
एक पूरे साल का बसंत होगा


चलना इन सीढ़ियों के पार कभी...
इस तरफ़ सारी रस्में होंगी
उस ओर सिर्फ़ राहतें होंगी
इस तरफ़ सारी शिकायतें होंगी
उस ओर सिर्फ़ मोहब्बतें होंगी


इस तरफ़ बाहर-भीतर का शोर होगा
उस ओर सिर्फ़ हम दोनों की साँसें होंगी
चलना इन सीढ़ियों के पार कभी...
उस ओर मेरी उड़ती ज़ुल्फ़ें होंगी..
और मुझे निहारते तुम होगे..
उस ओर सिर्फ़ हम होगे..
सिर्फ़ हम होंगे..




फोटो क्रेडिट मुझ ही को जाता है।  तस्वीर दिल्ली से सटे आदिलाबाद क़िले की है।