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Sunday, May 28, 2017

before series




प्यार में पड़ने से पहले और प्यार से निकलने के बाद 'before series' देखना संवैधानिक रूप से अनिवार्य किया जाना चाहिए. अजनबियत से शुरू होकर किन्हीं दो लोगों की कहानी कहाँ से कहाँ तक पहुँच जाती है, इसका इससे बढ़िया डॉक्युमेंटेशन कहीं नहीं मिलेगा. सिर्फ़ साथ पैदल चलना भर भी रोमैन्स हो सकता है, क्यूँकि उसमें भी लय की ज़रूरत होती है.. सीधे रास्तों पर चलते हुए मोड़ मुड़ने का इशारा साथ वाला पहले ही कर दे, ताकि चलने की लय बिगड़ने की नौबत ही ना आए. वाइन के लिए वाइन ग्लास चुराना ज़रूरी हो जाए और पीने की जगह के लिए एक खुला पार्क भी बहुत हो. सफ़र में चलते हुए दो लोग एक-दूसरे के सफ़र हो जाए. 


सालों बाद फिर से टकराए पर चलने की लय वही दशक पुरानी वाली बरक़रार रहे.‬ ‪और जब सारे प्रेम/रोमांस/झगड़े के बाद एक दरवाज़ा पटक कर चला जाए तो दूसरे को अपने आसपास की सारी चीज़ें बेजान लगने लगें. क्यूँकि इसके पहले झगड़े वाले दृश्य में वही चीज़ें चुप रहकर भी लगातार बोलती जा रहीं थी. बिस्तर की सिलवटें, जिसने उन दोनों के आलिंगन के इंतज़ार में आख़िरी आह भरी.. कप में पड़ी आधी चाय, जो ताज़गी देने की बेक़रारी में अपनी गरमाहट खोती रही और टेबल पर पड़े दो ग्लास वाइन के, जिन्होंने चुपचाप सारा दृश्य सुन-देख लिया पर अपने सुरूर को ज़िंदा हरकतों में ना देख पाए. 

‪और उस पूरे कमरे की ख़ामोशी, जो तब भी थी और अब भी है, पर तब वो ख़ामोशी झूम रही थी और अब बेमौत मर रही है. ‬ ‪#beforeseries#beforesunrise #beforesunset#beforemidnight

Saturday, January 28, 2017

वूड बी बहू - पार्ट टू

अरेंज मैरेज का सारा प्रॉसेस ही ग़लत है. सारे terms. 'लड़की दिखाना' से लेकर लड़का-लड़की को अलग से टाइम देना तक. एक लड़की को उसके शादी वाली उम्र के दौरान चाहे दसों लड़कों से मिलवा दिया जाए, लेकिन उसी लड़की की अगर चार लड़कों से दोस्ती रहे तो सबको दिक़्क़त. 
"बेटी, तुम सिर्फ़ सब लोगों के सामने हंस के बात करना.."
क्यूँ करे कोई लड़की हँस के बात? अगर कोई लड़की गम्भीर है, तो यह उसका व्यक्तित्व है, फ़ालतू में वो क्यूँ हँस के बात करेगी! 

असल में ये सारी बात वहाँ से शुरू होती है, जहाँ लड़की की शादी को माँ बाप अपनी इज़्ज़त से जोड़कर देखने लगते हैं. कोई बाप, लड़की की लेट शादी करने की बात को मान भी ले, तो पड़ोसी से लेकर रिश्तेदार, दूर दूर के रिश्तेदार, काम वाली बाई, चौकीदार, किराने की दुकान वाला, पार्क में बैठने वाली आंटियाँ सब मिलकर उन्हें उनकी ड्यूटी याद दिलाने लगते हैं. उनकी छाती पर बैठकर - 'हाय! कहीं बात नहीं बनी?' कहने लगते हैं. ये 'आगलगाओ' आंदोलन तो शाश्वत है, लेकिन क्यूँ कोई माता-पिता इन लोगों के सवाल को फटकारने में असमर्थ होते हैं! क्यूँ नहीं ये कह पाते कि 'नहीं करनी मुझे मेरी बेटी की शादी, उसका जब मन करेगा, वो ख़ुद करेगी'! 

क्यूँ नहीं अपनी ख़ुद की बेटी से कह पाते हैं कि तुम घर से निकला करो.. दुनिया देखा करो..आगे पढ़ो, नौकरी करो. सिर्फ़ और सिर्फ़ इतना कहने और करने से एक लड़की की ज़िंदगी, उसका पूरा नज़रिया बदल सकता है. मैंने ऐसे कई घरों को देखा है, जिन्हें लड़की को आगे की पढ़ाई के लिए पैसे देने में दिक़्क़त आ जाती है, लेकिन उसकी शादी के लिए मकान के पीछे वाली ज़मीन को बेच देना उचित लगता है. सर, अगर पढ़ाई के लिए ख़र्च कर दिया होता तो आपकी ज़मीन भी वापस आ जाती शायद और ज़मीन बेचने के बाद आपका गिरा स्वास्थ्य भी. 
नहीं, आपको डर किस बात लगता है? लड़की के साथ कुछ ग़लत हो जाने का? फेंको निकाल के ये डर.. वो हद समझदार है और ग़लत होता भी है, तो होने दीजिए. कम से कम ऐसी कोई परिस्थिति का सिर्फ़ वो ही सामना करेगी ना और कुछ समझ ही बढ़ेगी उसकी.. फिर भी उसे लगा कि आपकी ऊँगली पकड़ के ही चलना है, तो आ जाएगी आपके पास. फ़लाँ डर, ये डर, वो डर, हद है यार! प्लीज़ प्लीज़ नए नए प्राउड मम्मी-पापा बनने वाले लोगों, छोड़ दीजिए अपनी अपनी बेटियों को आज़ाद रहने दीजिए. 

प्लीज़ अरेंज मैरेज ज़्यादा सफल-असफल का प्रतिशत लेकर मत आ जाइएगा. अरेंज मैरेज में अब सब कुछ बदल रहा है, ऐसा कुछ कहने भी मत आ जाइएगा. अगर हम इस टॉरचर  को परम्परा के नाम पर अभी तक ढो रहे हैं तो मेरे लिए कुछ नहीं बदला है, उल्टा विषाक्त हो चुका है. मुझे इस पूरी व्यवस्था से ही चिढ़ होने लगी है और खुद भी ऐसी परम्परा का भागीदार बन कर कितनी शादियों में नाचने पर अब दोषी सा महसूस होता है. क्यूँकि उस वक़्त चीज़ों को अपने नज़रिये से देखने का हुनर नहीं आता था. बता दिया गया, तो लगा ऐसे ही होता है. मैं शायद ख़ुशनसीब रही जो इन बातों को अपनी दूरबीन लगा कर समझ पायी, सैकड़ों-हज़ारों लड़कियाँ और औरतें ऐसी हैं, जो इन चीज़ों का फ़र्क़ ही नहीं समझ पायी हैं आज तक. और प्लीज़ कॉमेंट और इन्बॉक्स में चुटकी लेने भी मत आइएगा कि 'ओहो! ये कहानी तुम्हारी है क्या?'.. मेरी पूरी फ़्रेंड लिस्ट में, पूरे फेसबुक में, पूरे दिल्ली में, पूरे बिहार में और पूरे हिंदुस्तान में ऐसी अनगिनत लड़कियाँ हैं, जो जाने-अनजाने इस व्यवस्था का हिस्सा है, जबकि सबने अपनी दीदी, चाची, नानी, मौसी की ऐसी कहानियाँ सुनी होंगी.. दरअसल ये सब हम पर थोपा ही ऐसे गया है कि लगता है इसके ख़िलाफ़ कुछ बोलकर हम दोषी हो जाएँगे, जबकि दोषी तो हम हरेक उस लड़की के लिए हैं, जिसको हमने इस व्यवस्था में भागीदार बनाया है. अच्छा घर-वर मिलना किसी लड़की का मक़ाम नहीं हो सकता.. ज़िंदगी में इससे बहुत ज़्यादा ज़रूरी चीज़ें हैं, जिसे हम अबतक समझ-देख नहीं पाए हैं. उन सब चीज़ों को ख़ुद भी जाकर देखिए और अपनी बेटियों से भी कहिए कि 'जाओ, नापो दुनिया'.